जगन्नाथ पुरी से रामेश्वरम की ओर जाने वाले मार्ग पर , राजमुन्दरी ( राजमहेंद्रवरम ) से 159 कि.मी.दूर विजयवाड़ा है l यहाँ से गुंटूर मात्र 37 कि.मी दूर है ।
विजयवाड़ा की पहाड़ी की चोटी पर बसे , कनक दुर्गा मन्दिर में श्रद्धालुओं के जयघोष से समूचा वातावरण और भी आध्यात्मिक हो जाता है। इस मन्दिर पर पहुँचने के लिए सीढ़ियों और सड़कों की भी व्यवस्था है , मगर अधिकांश श्रद्धालु इस मन्दिर में जाने के सबसे मुश्किल माध्यम सीढि़यों का ही उपयोग करना पसंद करते हैं। वहीं दूसरी ओर कुछ श्रद्धालु हल्दी द्वारा सीढि़यों को सजाते हुए भी चढ़ाई चढ़ते हैं , जिसे " मेतला पूजा " ( सीढ़ियों का पूजन ) कहते हैं।
विजयवाड़ा स्थित " इंद्रकीलाद्री " नामक इस पर्वत पर निवास करने वाली माता कनक दुर्गेश्वरी का मन्दिर आंध्रप्रदेश के मुख्य मन्दिरों में एक है। यह एक ऐसा स्थान है , जहाँ एक बार आकर इसके संस्मरण को पूरी जिंदगी नहीं भुलाया जा सकता है। माँ की कृपा पाने के लिए पूरे साल इस मन्दिर में श्रद्धालुओं का ताँता लगा रहता है , मगर नवरात्रि के दिनों में इस मन्दिर की छटा ही निराली होती है। श्रद्धालु यहाँ पर विशेष प्रकार की पूजा का आयोजन करते हैं।ऐसी भी मान्यता है कि इस स्थान पर भगवान शिव की कठोर तपस्या के फलस्वरूप अर्जुन को पाशुपथ अस्त्र की प्राप्ति हुई थी।
इस मन्दिर को अर्जुन ने माँ दुर्गा के सम्मान में बनवाया था। यह भी माना जाता हैं कि आदिदेव शंकराचार्य ने भी यहाँ भ्रमण किया था और अपना श्रीचक्र स्थापित करके माता की वैदिक पद्धति से पूजा-अर्चना की थी।इंद्रकीलाद्री पर्वत पर बने और कृष्णा नदी के तट पर स्थित कनक दुर्गा माँ का यह मन्दिर अत्यंत प्राचीन है।प्राचीन काल में ' कीला ' नामक एक यक्ष , देवी दुर्गा की कठोर तपस्या कर रहा था। उसकी तपस्या से देवी दुर्गा प्रसन्न हुईं और उसके सामने प्रकट हुईं। उन्होंने उससे वरदान मांगने को कहा। देवी दुर्गा के वचनों से कीला प्रसन्न हुआ और देवी दुर्गा से विनती की , "हे पवित्र माँ! आप सदैव मेरे हृदय में रहें।
मेरी यही एकमात्र इच्छा है"। देवी दुर्गा ने , तब यह सुनकर मुस्कान की चंद्र ज्योतियों की वर्षा करते हुए वरदान दिया और कीला यक्ष से कहा , " मेरे पुत्र! तुम यहाँ कृष्णा नदी के इस पवित्रतम तल पर पर्वत के रूप में रहो। कृतयुग में राक्षसों के वध के बाद मैं तुम्हारे हृदय में रहूंगी "। इस प्रकार , देवी दुर्गा के आदेश से कीला यक्ष , पर्वत के रूप में
देवी दुर्गा की प्रतीक्षा कर रहा था। कुछ समय बाद, कृतयुग में देवी दुर्गा ने महिषासुर का वध किया। इस पर्वत पर देवी दुर्गा करोड़ों सूर्यों के प्रकाश के समान स्वर्णिम रंग से चमक रही थीं। तब से इंद्र आदि सभी देवता उनकी स्तुति करते हुए " कनक दुर्गा " का जाप करते थे और प्रतिदिन उनकी पूजा करते थे। उस समय से इस पर्वत का नाम " इंद्रकीलाद्रि " पड़ा , क्योंकि सभी देवता इस पर्वत पर आते हैं।
इसी प्रकार, चूंकि देवी दुर्गा इस पर्वत पर स्वर्णिम रंग की चमक के साथ चमकती थीं , इसलिए इस पर्वत को ' कनकचला ' नाम भी प्राप्त हुआ। पवित्र इंद्रकीलाद्रि पर्वत देवी दुर्गा के इस पर आधिपत्य के बाद सबसे पवित्र हो गया। तब ब्रह्मा देव को एक पवित्र अंतर्ज्ञान हुआ कि भगवान शिव भी इस पर्वत पर आधिपत्य करें। इस पवित्र उद्देश्य के लिए उन्होंने 'सत अश्वमेध यज्ञ' किया था। इससे भगवान महेश्वर उनकी भक्ति से प्रसन्न हुए और इस पर्वत पर 'ज्योतिर्लिंग' के रूप में विश्राम किया चूँकि ब्रह्मा देव ने चमेली के फूलों से भगवान शिव की पूजा की थी, इसलिए उन्हें 'मल्लिकेश' नाम प्राप्त हुआ।
ऐसा माना जाता है कि इस मन्दिर में स्थापित कनक दुर्गा माँ की प्रतिमा " स्वयंभू " है। इस मन्दिर से जुड़ी एक पौराणिक कथा यह भी है कि एक बार राक्षसों ने अपने बल प्रयोग द्वारा पृथ्वी पर तबाही मचाई थी। तब
अलग-अलग राक्षकों को मारने के लिए माता पार्वती ने अलग-अलग रूप धारित किए। उन्होंने शुंभ और निशुंभ को मारने के लिए कौशिकी , महिसासुर के वध के लिए महिसासुरमर्दिनी व दुर्गमसुर के लिए दुर्गा जैसे रूप धरे। कनक दुर्गा ने अपने एक श्रद्धालु " कीलाणु " को पर्वत बनकर स्थापित होने का आदेश दिया , जिस पर वे निवास कर सकें।
तत्पश्चात किलाद्री की स्थापना दुर्गा माँ के निवास स्थान के रूप में हो गई। महिसासुर का वध करते हुए इंद्रकीलाद्री पर्वत पर माँ आठ हाथों में अस्त्र थामे और शेर पर सवार हुए स्थापित हुईं। पास की ही एक चट्टान पर ज्योतिर्लिंग के रूप में शिव भी स्थापित हुए। ब्रह्मा ने यहाँ शिव की मलेलु ( बेला ) के पुष्पों से आराधना की थी , इसलिए यहाँ पर स्थापित शिव का एक नाम मल्लेश्वर स्वामी पड़ गया ।
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